#Sengol : स्वतंत्रता का प्रतीक ‘सेंगोल’, संविधान में श्रीराम-श्रीकृष्ण विराजमान, पर मुस्लिम तुष्टिकरण के लिए बदल दिया वेदों की भूमि का इतिहास

न्यूज़ डेस्क। भारत सनातन की भूमि है। ये वेदों की भूमि है। ये धरती है भगवान श्रीराम की, श्रीकृष्ण की, रामायण-महाभारत की। ये वो भूमि है जहाँ वेद व्यास और वाल्मीकि जैसे विद्वान ऋषि एवं लेखक हुए। जिस महाराज भरत के नाम पर इस देश का नामकरण हुआ, उनका जिक्र भी पुराणों से ही आया है। आजकल इनकी चर्चा करने पर कह दिया जाता है कि ये सब तो हिन्दू धर्म की बातें हैं, इनसे भय का माहौल बनता है और एक सेक्युलर देश में ऐसी बातें नहीं करनी चाहिए।

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हम ये क्यों नहीं सोचते कि ये चीजें भारतीय पहले है, बाद में धार्मिक। क्या इस देश का नाम सिर्फ इसीलिए बदल दिया जाए क्योंकि ये पुराणों में वर्णित एक राजा के नाम पर है? रामायण-महाभारत भारत भूमि की कथाएँ हैं, इतिहास हैं, बाद में इसमें हिन्दू धर्म आता है। यहाँ रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति को मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम और जगद्गुरु श्रीकृष्ण पर गौरव होना चाहिए, क्योंकि वो इसी भूमि पर मानवता के नए मूल्य स्थापित कर के गए, जीवन की कई समस्याओं का समाधान बता कर गए।

ये कितना बेहूदा तर्क है कि ‘जय श्री राम’ या ‘जय श्री कृष्ण’ नहीं बोलना चाहिए, क्योंकि इस देश में अन्य मजहबों के लोग भी रहते हैं। अमेरिका का राष्ट्रपति बाइबिल पर हाथ रख कर शपथ लेता है, इंग्लैंड के राजा का राज्याभिषेक ईसाई पादरियों की निगरानी में होता है और मलेशिया जैसे लोकतांत्रिक मुल्क का भी आधिकारिक मजहब इस्लाम वहाँ के संविधान में वर्णित है। फिर भारत में यहाँ के इतिहास, संस्कृति, सभ्यता और परंपराओं का पालन करना, इसकी चर्चा करना और इस पर गौरव करना कैसे ‘सेक्युलर’ विचारधारा के विपरीत हो गया?

उदाहरण के लिए, ‘सेंगोल’ को ही ले लीजिए। ये शब्द आजकल काफी चर्चा में है। ‘सेंगोल’ अर्थात, चोल वंश का राजदंड। इसे मुख्य पुरोहित द्वारा एक शासक को सौंपा जाता था, जिसके साथ ही उसके शासन का शुभारंभ हो जाता था। चोल साम्राज्य भारत के सबसे प्राचीन और सबसे लंबे समय तक राज करने वाले राजवंशों में से एक रहा है। 300 ईसापूर्व में भी इसका वर्णन मिलता है। 1500 से भी अधिक वर्षों तक इस राजवंश ने शासन किया।

11वीं शताब्दी में इस साम्राज्य ने अपने शिखर को छुआ। चेरा और पंड्या के अलावा चोल राजवंश ने दक्षिण भारत में अपनी प्रभुता स्थापित की और कई मंदिर बनवाए। सामान्यतः, चोल राजा शिवभक्त होते थे। यही कारण है कि ‘सेंगोल’ में सबसे ऊपर भगवान शिव के वाहन वृषभ की, नंदी की प्रतिमा है। तंजावुर का बृहदेश्वर मंदिर चोल राजवंश की निर्माण कला का सबसे उत्कृष्ट नमूना है। राजेंद्र चोल को इस राजवंश का सबसे महान शासक माना जाता है।

जब से ये सामने आया है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा इस ‘सेंगोल’ को ग्रहण किया जाएगा और इसे नए संसद भवन में स्थापित किया जाएगा, तब से एक बार फिर से ‘सेक्युलरिज्म’ का नाम लेकर रोना-धोना शुरू हो गया है। न तो वेद विदेशी है और न ही ‘सेंगोल’, जब दोनों ही भारतीय परंपरा और सभ्यता का हिस्सा रहे हैं तो फिर ऐसी चर्चा क्यों हो रही है कि इससे ‘सेक्युलरिज्म’ को नुकसान पहुँचेगा? ‘सेंगोल’ तो न्यायप्रियता, सत्य और शक्ति का प्रतीक है।

वेदों की धरती पर अगर वैदिक मंत्रोच्चार नहीं होने तो क्या फिर अरब और यूरोंप की परंपराएँ उधार ली जाएँगी? हाल ही में हम सबने देखा कि कैसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और ऑस्ट्रेलिया के पीएम एंथोनी अल्बानीज सिडनी स्थित कुडोस बैंक एरिना में प्रवासी भारतीयों के कार्यक्रम में पहुँचे तो वहाँ वैदिक मंत्रोचार के साथ उनका स्वागत किया। जब आसट्रेलिया में इससे कोई समस्या नहीं है तो फिर वेदों की धरती पर वेद से किसी को दिक्कत क्यों?

आगे बढ़ने से पहले ‘सेंगोल’ के बारे में थोड़ा और जान लेते हैं। इसके लिए हमें चलना होगा तब के ज़माने में, जब इस देश को आज़ादी मिल गई थी और बस इसकी औपचारिकता बाक़ी थी। इस देश का दुर्भाग्य है कि जब पंडित जवाहरलाल नेहरू से अंग्रेजों के अंतिम गवर्नर-जनरल लॉर्ड माउंटबेटन ने पूछा कि आपके देश में सत्ता हस्तांतरण को लेकर क्या रीति-रिवाज हैं, तो नेहरू को कुछ जवाब नहीं सूझा। आखिर वो ‘सेक्युलर’ जो ठहरे!

जवाहर लाल नेहरू ने भले ही ‘भारत: एक खोज’ लिखी, लेकिन ये आश्चर्य की बात है कि इस धरती की परंपराओं को आगे बढ़ाने में उन्हें शर्म महसूस होती थी। उन्होंने ‘स्वतंत्रता पार्टी’ के संस्थापक रहे चक्रवर्ती राजगोपालचारी से इस बारे में पूछा, जो भारतीय संस्कृति की गहरी समझ रखते थे। चक्रवर्ती राजगोपालचारी बाद में भारत के गवर्नर-जनरल और गृह मंत्री भी बने। उन्होंने इस समस्या का समाधान ‘सेंगोल’ के रूप में किया।

जवाहरलाल नेहरू से ज्यादा चिंता तो लॉर्ड माउंटबेटन को थी कि इस सत्ता हस्तांतरण की प्रतीकात्मकता क्या हो और इस समारोह को विशेष बनाने के लिए क्या किया जाए। इस तरह चोल राजाओं का एक विधि अनुष्ठान भारत की आज़ादी के सबसे महत्वपूर्ण कार्यक्रम का हिस्सा बना। प्राचीन काल में गैर-ब्राह्मण ‘आधीनम्‌’ पुरोहितों द्वारा इस अनुष्ठान को संपन्न कराया जाता था। ये शैव संप्रदाय में आते थे। थिरुवावदुथुरई मठ से राजाजी के आग्रह पर स्वतंत्रता समारोह में परंपराओं के वहन का कार्य संभाला।

इस दौरान तमिल कवि संत थिरुज्ञानसंबंधर द्वारा रचित ‘कोलारु पदिगम’ का गायन किया गया। वैदिक मंत्रोच्चार के बीच 14 अगस्त, 1947 को सेंगोल को जवाहर लाल नेहरू को सौंपा गया, पुरोहितों द्वारा इसे शुद्ध जल से पवित्र किए जाने के बाद। जिस ‘सेंगोल’ का उस समय इस्तेमाल हुआ था, उसे मद्रास के स्वर्णकार वुम्मिडि बंगारू चेट्टी ने हस्तशिल्प कारीगरी द्वारा बनवाया था। दुर्भाग्य है कि जवाहरलाल नेहरू और फिर कॉन्ग्रेस ने दशकों तक इस देश पर राज करने के बावजूद ‘सेंगोल’ को कभी याद नहीं किया। आखिर ‘सेकुलरिज्म’ जो खतरे में आ जाता।

सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात तो ये है कि तमिलनाडु की सत्ताधारी पार्टी DMK भी नए संसद भवन के उद्घाटन के बॉयकॉट कर रही है। उन्हें तो खुश होना चाहिए, जिस तमिलनाडु की जनता ने उन्हें चुना है उस तमिल संस्कृति को दिल्ली में अपना कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ का ध्येय लेकर चल रहे हैं। जो लोग दक्षिण भारत में क्षेत्रीय कट्टरवादी विचारधारा को पोषण देते हैं और आर्य-द्रविड़ वाले खेल से भारतीय समाज को विभाजित करने का उपक्रम चलाते हैं, उन्हें भला ‘सेंगोल’ का दिल्ली में स्थापित किया जाना कैसे पसंद आएगा?

‘सेंगोल’ तमिलनाडु को दिल्ली से जोड़ रहा है। ‘सेंगोल’ चोल राजवंश की अनुष्ठान परंपरा को जीवंत कर रहा है। ‘सेंगोल’ भारत के इतिहास, प्राचीन सभ्यता और संस्कृति का प्रतीक बन कर सामने आ रहा है। ‘सेंगोल’ की स्थापना वेदों की इस भूमि पर वैदिक रीति-रिवाजों का सम्मान है। ‘सेंगोल’ हजारों वर्ष पुरानी इस जीवंत सभ्यता की समृद्धि का प्रतीक है। ‘सेंगोल’ सत्ता को शिव से जोड़ता है। ‘सेंगोल’ सत्ताधीशों को सत्य और न्याय की याद दिलाता रहेगा।

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सोर्स :- ऑपइंडिया
** संपादक की पसंद

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