मध्य भारत के बीच स्थित धान का कटोरा कहा जाने वाला प्रदेश छत्तीसगढ़ में हरेली के बाद हलशष्ठी और बहुलाचौथ नामक दो स्थानीय त्यौहार और आते हैं ( संभव है कि यह त्यौहार भारत के अन्य प्रांतों में किसी और नाम से मनाया जाता हो ) इनके बाद आता है “पोला” जिसे कि छत्तीसगढ़ी में “पोरा” भी कहा जाता है। पोला त्यौहार का छत्तीसगढ़िया संस्कृति में विशेष महत्व है क्योंकि इस दिन बैलों का श्रृंगार कर पूजा की जाती है और यह तो हम सभी जानते हैं कि बैल छत्तीसगढ़ ही नही बल्कि पूरे भारतीय कृषि संस्कृति में बहुत बड़ा महत्व रखते हैं।

पोला/पोरा

पोरा-पोला,अगस्त महीने के दौरान कृषि कार्य समाप्त होने के बाद भाद्रपद ( भादो ) की अमावस्या को मनाया जाता है। जनश्रुति के मुताबिक इस दिन अन्नमाता गर्भधारण करती है मतलब कि इसी दिन धान के पौधों में दूध भरता है, इसी कारण इस दिन खेतों में जाने की अनुमति भी नही होती। पोला के दिन बैलों को उनके मालिक सजा कर पूजा करते हैं जबकि बच्चे आग में पकाए गए मिट्टी के बने या फ़िर लकड़ी के बने बैलों की पूजा कर उनसे खेलते हैं। कुछ स्थानों पर आज के ही दिन में बैलों दौड़ का भी आयोजन बड़े पैमाने होता हैं। इसी तरह गांव और शहरों में भी बैल दौड़, बैल सजाओ प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती हैं और विजयी बैल-मालिकों को पुरस्कृत भी किया जाता है। इस दिन ठेठरी, खुर्मी और चौसेला जैसे छत्तीसगढ़ी पकवान बनाए जाते हैं। इन पकवानों को मिट्टी के खिलौने रुपी बर्तनों में रखकर पूजा की जाती है जिस से कि बर्तन हमेशा अन्न से भरे रहें। और बाद में बच्चों को खेलने के लिए दे दिए जाते है।

“तीजा”/ हरतालिका

हरतालिका तीज व्रत भाद्रपद की शुक्ल पक्ष की तृतीया को हस्त नक्षत्र के दिन होता है। इस दिन कुमारी और सौभाग्यवती महिला गौरी और शंकर की पूजा करती है। कहते हैं कि हरितालिका “तीजा” का महत्व वैसा ही है,जैसे करवा चौथ का इसीलिए इसे निर्जला रखा जाना चाहिए, अर्थात पानी भी नहीं पीना चाहिए। छत्तीसगढ़ में इसी हरतालिका तीज को ही “तीजा” के नाम से जाना-माना जाता है। प्रदेश की छत्तीसगढ़िया महिलाएं तीजा का व्रत जरुर करती हैं और जैसा कि यहां की परंपरा में माना जाता है कि इस व्रत को विवाहित महिलाएं अपने मायके में ही रहकर करती हैं। मायके में रहकर “तीजा” मनाने के लिए महिलाएं रक्षाबंधन या पोला तक अपने मायके पहुंच जाती हैं इसके लिए मायके से कोई ना कोई उन्हें लेने आता है। हालांकि आजकल व्यस्तता के चलते या महिलाओं के कार्यरत होने के कारण ऐसा ज़रुरी भी नही कि रक्षाबंधन या पोला पर मायके पहुंच ही जाएं पर वे तृतीया के पहले दिन अर्थात द्वितीया या दूज को जरुर मायके पहुंचती हैं क्योंकि दूज के दिन यहां महिलाएं कड़ु-भात ( करेले की सब्जी और भात) खाने की परंपरा का पालन करती है साथ में इस मौके पर बने स्थानीय पकवान भी फ़िर रात्रि बारह बजे के बाद से निर्जला व्रत शुरु करती है जो कि अगली रात बारह बजे तक चलता है। तीजा के दिन मायके से मिले कपड़े पहनकर जहां कहीं भी आस-पड़ोस में कथा बांचकर पूजा की जा रही हो वहां जाकर शिव -पार्वती की फूल फल और विधि विधान से पूजा करती हैं। दूसरे दिन अर्थात चतुर्थी को पहेट में पूजा पाठ के बाद ही फलाहार भोजन ग्रहण करते है।

वर्तमान सरकार ने छत्तीसगढ़िया संस्कृति को ध्यान में रखते हुए संस्कृति को सजोने सवारने के उद्येश्य से “तीजा”/ हरतालिका के लिए शासकीय अवकाश घोषित कर छतीसगढ़ त्योहार में और रौनक बिखेर दी है।

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